होमियोपैथी के आविष्कार डॉ० क्रिश्चियन फ्रेडरिक सैमुअल हैनीमन को माना जाता है। महात्मा हैनोमैन का जन्म 10 अप्रैल सन् 1755 ई० को
जर्मनी के सैक्सन राज्य के मैसेन नामक नगर में हुआ था। उनके पिता एक निर्धन व्यक्ति थे । वे मिट्टी के बर्तन तैयार करने वाले एक कारखाने में चित्र-कारी का काम करते थे । हैनीमैन के परिवार की गरीबी का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि रात्रि में अध्ययन के लिए हैनीमैन जिस मिट्टी के दीपक को जलाते थे, उसे उन्होंने स्वयं ही अपने हाथ से तैयार किया था।
बीस वर्ष की आयु तक हैनीमन मैसेन के ही एक विद्यालय में अध्ययन करते रहे । तत्पश्चात् उन्होंने लिपजिग नगर में जाकर विद्याध्ययन किया।
बचपन से ही वे बड़े कुशाग्र बुद्धि थे । 25 वर्ष की आयु में ही उन्होंने ऐलोपैथी में एम. डी. उपाधि प्राप्त कर ली । चिकित्सा-शास्त्र एवं रसायन विद्या के तो वे प्रकाण्ड पण्डित थे ही। उन्होंने जर्मन के अतिरिक्त लैटिन, अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, ग्रीक, हिपू, इटालियन, सीरियन, अरबी आदि भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री हैनीमैन का पहला विवाह सन् 1782 ई० में हेनरियेटाकुस्कर नामक एक सुन्दरी एवं गुणवती महिला के साथ हुआ। तत्पश्चात् वे ड्रेसडेन के एक अस्पताल में चिकित्सक के पद पर कार्य करने लगे । लगभग 10 वर्ष तक उन्होंने ऐलोपैथिक-चिकित्सा का कार्य किया ।
विपरीत-चिकित्सा विधान का प्रचार हिपोक्रेटिस' नामक एक विद्वान् द्वारा किया गया था, जिसको ऐलोपैथी का नाम भी हैनीमैन ने ही दिया था।एलोपैथिक चिकित्सक का कार्य करते समय श्री हैनीमैन को कुछ ऐसे अनुभव हुऐ, जिनसे उन्हें इस चिकित्सा पद्धति से घृणा हो गई । फलत उन्होंने चिकित्सा का कार्य छोड़ दिया और वे रसायन शास्त्र तथा वैज्ञानिक पुस्तकों का अनुवाद करके आजीविका का उपार्जन करने लगे।
सन् 1790 ई० में डॉ० कालन लिखित 'ऐलोपैथिक मेटेरिया मेडिका का जर्मन भाषा में अनुवाद करते समय उन्होंने उस ग्रन्थ में एक स्थान पर यह पढ़ा कि सिनकोना' नामक औषध, जिससे 'कुनैन' तैयार की जाती है, जाड़ा लगकर आने वाले ज्वर (मलेरिया ) को दूर करती है, साथ ही यह भी कि यदि कोई स्वस्थ व्यक्ति, 'सिनकोना' का सेवन करे तो उसे जाड़ा लगकर बुखार भी आ जाता है। इस विवरण को पढ़कर डॉ० हैनीमैन के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि कम और भी कुछ ऐसी औषधियाँ हैं, जो रोग को उत्पन्न करने तथा ।
उन्हें शान्त करने -दोनों बातों की मामर्थ्य रखती हो । सर्वप्रथम उन्होंने स्वस्थ शरीर पर 'सिनकोना' का ही प्रयोग किया। उसके सेवन से दूर भी हो गया। बस, यहीं से श्री हैनीमैन ने अन्य औषधियों पर भी अपने परीक्षण प्रारम्भ कर दिये। लगभग 6 वर्ष के प्रयोग, परीक्षण एवं अनुभव के बल पर उन्होंने 27 ऐसी मुख्य औषधियों को ढूंढ निकाला, जिसमें किसी रोग को उत्पन्न करने तथा उसे नष्ट करने दोनों ही गुण पाये जाते हैं ।
सन् 1796 ई० में भी है तोमैत ने आने स्वानुमुत परीक्षणों के निष्कर्ष को एक लेब का रूप देकर, तत्कालीन प्रसिद्ध चिकित्सा-पत्रिका 'ह्यूफाउलैण्ड्स जर्नल' में प्रमाणित कराया। उस लेख के छपते ही चिकित्सकों में एक प्रकार की हलचल सी मच गई। अनेक व्यक्तियों ने भी हैनीमैन का शिष्यत्व ग्रहण
कर, उनकी नवीन चिकित्सा विधि का विधिवत् अध्ययन प्रारम्भ कर दिया।
जबकि अनेक लोग इस कारण ही उनसे शत्रुता मानने लग गए।
सन् 1805 ई० में श्री हैनीमैन ने 'Fragmentade Virbus' नामक एक पुस्तक लेटिन भाषा में लिखकर प्रकाशित कराई। इस पुस्तक में उन 27 ओषधियों के गुण-दोषों का वर्णन किया गया था, जिन्हें उन्होंने स्वयं अपने ही शरीर पर प्रयुक्त करके देखा था। इस पुस्तक को ही होमियोपैथी की सबसे पहली 'मेटेरिया मेडिका माना जाता है।
सन् 1810 ई० में श्री हैनीमैन ने अपना सुप्रसिद्ध ग्रन्थ आर्गेनन अर्थात् 'आरोग्य साधन' प्रकाशित कराया। इस ग्रन्थ में उन्होंने 'सदृश- चिकित्सा पद्धति अर्थात् 'होमियोपैथी' के मूल सिद्धान्तों का वर्णन तथा युक्तियुक्त समर्थन करते हुए ‘बिपरीत चिकित्सा पद्धति' अर्थात् एलोपैथी' के दोषों को प्रदर्शित किया है।
'आर्गेनन' के प्रकाशित होते ही सम्पूर्ण चिकित्सक जगत स्तब्ध-सा रह गया। तत्कालीन चिकित्सक चूंकि एलोपैथिक विधि से ही इलाज करते थे।
अतः उनमें से अधिकांश हैनीमैन के विरोधी हो गये। परन्तु सत्य के एक निष्ठ पुजारी श्री हैनीमैन ने उनके विरोध की कोई चिन्ता नहीं की और वे अपने ही द्वारा आविष्कृत चिवित्सा-पद्धति के और विकास की ओर ध्यान देने लगे । सदृश चिकित्सा विधान का 'होमियोपैथी' नामकरण भी उन्हीं के द्वारा किया गया।
सन् 1812 ई० में उन्हें लिपजिङ्ग युनिवर्सिटी में होमियोपैथी का प्राध्यापक नियुक्त किया गया। वहां उन्होंने लोगों को अपने द्वारा आविष्कृत नवीन चिकित्सा-विधि की शिक्षा देना आरम्भ कर दिया। थोड़े ही समय में हजारों व्यक्ति उनके अनुयायी बन गये तथा उनकी कीर्ति दिन दूनी-रात चौगुनी गति से चारों ओर फैलने लगी।
सन् 1821 ई० में अपने विरोधियों के षड़यन्त्रों के फलस्वरूप श्री हैनीमैन को लिपजिङ्ग से निर्वासित होना पड़ा और वे फ्रांस के 'कोटेन नामक एक नगर में जा पहुंचे। वहां उन्होंने एक राजा को 'असाध्य' कहे जाने वाले रोग से अपनी चिकित्सा-पद्धति द्वारा थोड़े दिनों में रोग-मुक्त कर दिया, फल-स्वरूप उन्हें वहाँ अत्यधिक धन तथा यश प्राप्त हुआ और वे 'राजवैद्य' के पद पर भी प्रतिष्ठित किये गये। इस नगर में वे 14 वर्ष तक रहे तथा इसी अवधि में की 'क्रांनिक डिजीज' नामक पुस्तक भी प्रकाशित हुई, जिसके कारण उनकी कीति विश्वव्यापी हो गई । प्रारम्भ में श्री हैनीमैन ने अपनी औषधियों की मात्रा अधिक परिमाण में रक्खी थी। उनसे रोग तो ठीक हो जाता था, परन्तु औषध के पेट में पहुँचते ही वह पहले कुछ बढ़ भी जाया करता था। इस दोष को दूर करने के लिए उन्होंने औषध की मात्रा घटानी भारम्भ कर दो। इसका जो परिणाम निकला, वह अत्यन्त आश्चर्यजनक था । उसी के फलस्वरूप वे इस निष्कर्ष पर भी पहुँचे कि मदंन आदि क्रियाओं के द्वारा यदि किसी पदार्थ को सूक्ष्म अंश में बाँट दिया जाय तो वह अपने स्थूल अंश की अपेक्षा कहीं अधिक वैद्युतिक-शक्ति से सम्पन्न हो जाता है तथा उसकी रोग नाशक शक्ति भी अधिक बढ़ जाती है।
औषध की मात्रा को सूक्ष्मातिसूक्ष्म करने के लिए डॉ० हैनीमैन ने मूल औषध को सुरासुर( अल्कोहल ), शुद्ध जल अथवा दूध की चीनी सुगर ऑफ मिल्क में मिलाने की विशेष विधि का भी आविष्कार किया, जिसके द्वारा एक ही औषध के विभिन्न क्रम (पोटेन्सी) तैयार किये जाने लगे ।
सन् 1830 ई० में उनकी पहली पत्नी का स्वर्गवास हो गया। 80 बर्ष की आयु में डॉ० हैनीमैन ने 'मेलानी' नामक एक अन्य रूप गुण तथा धर्म सम्पन्न कुलीन फ्रांसीसी महिला के साथ विवाह किया। अपनी दूसरी पत्नी के प्रयत्नों के फलस्वरूप उन्हें फ्रांस की राजधानी में रहकर चिकित्सा-कार्य करने की सनद प्राप्त हो गई। अस्तु जीवन के अन्तिम 8 वर्ष उन्होंने पेरिस में रहकर ही चिकित्सा-कार्य करते हुए व्यतीत किये। इस अवधि में उन्होंने पर्याप्त यश के साथ ही विपुल धन भी अजित किया।
अपनी दूसरी पत्नी की सलाह, पर उन्होंने अपनी विशाल सम्पत्ति में से केवल 30 हजार रुपये अपने पास रखकर शेष कई लाख रुपये तथा दो सुमज्जित मकान अपनी पहली पत्नी के बच्चों को दे दिये थे। इस प्रकार उन्होंने पिता के कर्तव्यों का भी पूरी तरह से पालन किया।
2 जुलाई सन् 1843 ई० को महात्मा हैनीमैन का स्वर्गवास हुआ मृत्यु के समय भी लगभग 30 लाख रुपये की सम्पत्ति छोड़ गये थे। उन्हें 'मोनतार्ट' नामक कब्रिस्तान में दफनाया गया था। सन् 1899 में उनके शव को वहां से निकाल कर बड़े सम्मान पूर्वक 'पेरेला शेज' नामक कब्रगाह में दफनाया गया है।