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अल्सरेटिव कोलाइटिस का प्राकृतिक चिकित्सा में इलाज

कोलाइटिस
वृहद आंत्र प्रदाह यानि बड़ी आँत का रोग खाने-पीने में लापरवाही कितनी नुकसानदेय बन जाती है, इसका एक उदाहरण कोलाइटिस है। अनियमित तरीके से उल्टा-सुल्टा खा-पी लेने से कब्ज बन जाता है । कब्ज होने पर भी जब लगातार लापरवाही बरती जाती है तब साधारण सी ब्याधि के रुप में उपजा यह रोग धीरे-धीरे अपना उपद्रव दिखाने लगता है, इन उपद्रवों के फलस्वरुप कई तरह के रोग जिनमें कष्टकारक गम्भीर प्रकृत्ति के रोग भी होते हैं, उभरने लगते हैं, इन्हीं रोगों में एक रोग है-कोलाइटिस। बड़ीआंत में जख्म होकर स्थिति को पेचीदा बना देने वाला यह रोग रोगी को परेशान करना शुरु कर देता है। आरम्भिक दशा में कुछ भी खा पी लेने के बाद पेट में दर्द के लक्षण उभरते हैं, बाद में उपचार तथा उचित पथ्यापथ्य के अभावा में रोग बढ़ता जाता है, यहां तक कि बड़ी आंत में फोड़ा तक होकर स्थिति गम्भीर बनती जाती है। यह रोग क्यों होता है? कैसे इसकी सफल चिकित्सा हो, इन बातों को सरल भाषा में संक्षेप रुप में बताया जा रहा है। आधुनिक जीवन शैली को अपनाने की वजह से पाचन रोगों में निरंतर वृद्धि हो रही है। व एलोपैथी में तो एक पृथक शाखा गेस्ट्राऐन्ट्रोलॉजी ही इन रोगों के अध्ययन एवं चिकित्सा के लिये में खुल गई है। इन रोगो में एक रोग जो अधिकता से देखने में आ रहा है, वह है, बड़ी आंत का प्रदाह या कोलाइटिस।
छोटी आंत के मुकाबले में बड़ी आंत काफीछोटी होती हैं जहां छोटी आंत बीस फुट से अधिक लम्बी होती है वही बड़ी आंत मात्र साढे चार फीट होती हैं। इसका अंतिम भाग मलाशय हैं जो बाहर गुदा या मल द्वारा खुलता हैं। छोटी आंत भोजन को पचाकर उसका सार सोख लेती है। अनपचा, व्यर्थ भोजन बड़ी आंत में पहुंचा दिया जाता है। इसमें साथ में पित्त, आंतों से रिसा व्यर्थ पदार्थ, श्लेष्मा, असंख्य जीवित मृत जीवाणु आदि भी होते हैं। बड़ी आंत की पेशियां सक्रिय व बलवान होती हैं किन्तु अशक्त आंत अपना कार्य ठीक से नहीं कर पाती है जिससे मल बड़ी आंत में ज्यादा देर तक पड़ा रहता हैं। परिणामस्वरूप ऑत की श्लेष्मिक झिल्ली में सूजन आ जाती है, घाव होने से मल के साथ श्लेष्मा, फिर धीरे-धीरे खून भी आने लगता है। यही कोलाइटिस या बृहदान्त्र शोध का प्रदाह कहलाता हैं।


एलोपैथी हर रोग का कारण जीवाणुओं को मानता हैं अत: इस रोग के मूल में भी यही धारणा
है। यह सत्य भी है कि रोग हो जाने पर बड़ी आंत मे बहुसंख्यक जीवाणु पाये जाते हैं लेकिन
प्राकृतिक चिकित्सकों के अनुसार ये रोग का कारण न होकर रोग का परिणाम ही है। इस रोग के होने में प्रमुख कारण कब्ज का लम्बे समय तक बने रहना है। इस कारण कब्ज
और कोलाइटिस दोनों के पीछे एक जैसी जीवन को शैली है। निष्प्राण भोजन मैदा, शक्कर, अचार घी- तेल, मिर्च-मसाले जैसी वस्तुओं का सेवन; फल तरकारियां, सलाद का कम सेवन; चाय-काफी, कोल्ड ड्रिंक, सिगरेट-तबांकू, शराब का सेवन के आदि इसके मूल कारण हैं । आराम-तलब, सफेद पोश जीवन जीने से भी प्रवाह व ऑतों का संचालन मंद पड़ जाता है, तनाव व असहज जीवन भी इसके कारण हैं इनसे ऑत की स्वाभाविक आकुंचन क्रिया प्रभावित होकर पेशियों में कड़ापन आ जाता हैं जिससे कब्ज पैदा हो जाता हैं।
इस रोग की साधारण अवस्था में कभी-कभी है श्लेष्मा निकलने लगती हैं। थोड़ा सा खाने पर पेट में भारीपन, हल्का दर्द आदि महसूस होने पर कब्ज का इलाज किया जाता है। धीरे-धीरे श्लेष्मा अधिक- निकलने से आंत्र-शोध फोड़ों में बदल जाता हैं और आंत की दीवारें नष्ट हो जाती हैं। भोजन पर विचार न करने से, अधिक रेचक पदार्थ लेने से, तनाव युक्त जीवन से यह अवस्था शीघ्र आ जाती है। आंतों में अधिक व्रण या घाव हो जाने पर अवस्था अल्सरेटिव
कोलाइटिस कहलाती है। ऐलोपैथी में इस अवस्था में मात्र शल्य चिकित्सा ही एक मात्र उपाय है। आंत के ने संक्रमित भाग को काटकर निकाल दिया जाता है लेकिन प्राकृतिक चिकित्सा अपनाने पर काफी हद तक रोग मुक्ति संभव है। रोग काफी पुराना एवं जीर्ण होने से चिकित्सा में काफी धैर्य रखना पड़ता हैं तभी आशाजनक परिणाम संभव है। यदि अलसरेटिव कोलाइटिस की अवस्था में भी असावधानी जारी रहे तो कैंसर बनते देर नही लगती है। कोलाइटिस के रोगियों का शरीर विषाक्त एवं शुष्क होता है अत: जल का भरपूर सेवन नितान्त आवश्यक है। अगर रोगी की इच्छाशक्ति दृढ़ होतो कुछ दिनों तक नीबू-पानी का उपवास लाभदायक है ताकि ठोस या तरल किसी भी भोजन को पचाने का भार आंतों पर न डलने से वे साधारण स्वास्थ्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हो सकें। पेट में दर्द होने पर गर्म पानी का या ठण्डा-गर्म सेक लें। इसके लिये एक बार गर्म पानी से भिगोया कपड़ा पेट पर रखें फिर दो मिनट बाद ठण्डे पानी से भिगोया कपड़ा रखें इस तरह से 5-6 बार फिर नींबू डालकर सादे पानी का एनिमा लें।या नीम के पानी का एनिमा लें। पेट पर मिट्टी की पट्टी रखना भी हितकारी है। भोजन में सब्जियों का सूप या फलों का रस लें। दिन में एक दो बार ताजा मट्ठा पिएं। इस रोग में आंतों में प्रदाह हो जाने से आंतों को उत्तेजित करने या रगड़ने वाली कोई खाद्य वस्तु जैसे तेज मसाले, कड़े छिलके, रेशेदार सब्जी-
फल आदि का पूर्ण त्याग कर देना चाहिये। आंतों की अवस्था में सुधार होने पर ही इसके अलावा न कोई ठोस आहार ग्रहण करें। शारीरिक श्रम से दूर द रह कर रोगी को पूर्ण विश्राम करना चाहिये। जैसे-जैसे स्थिति में सुधार आता जाए तो उबली सब्जियां, दही, मट्ठा, सलाद, फल व ईसबगोल का सेवन शुरू कर देना चाहिये।इस रोग में प्रात: उषापान यानि रात्रि भर तांबे के बर्तन मे रखा पानी पीना भी लाभदायक है। सूर्य किरण चिकित्सा भी अपनाने से शीघ्र लाभ की संभावना रहती है। प्रात: एक कप हरी बोतल का पानी पिएं, नाश्ते एवं भोजन के आधे घण्टे पूर्व 1/2 कप नीली बोतल का पानी व 2 घण्टे बाद में पीली बोतल का पानी पीना
हितकारी है।
यथा शक्ति योगासन करें। इस रोग में भुजंगासन, अर्धचक्रासन, धनुरासन, शलभासन पवनमुक्तासन लाभकारी हैं। मानसिक शांति के लिये ध्यान, प्राणायाम व शवासन करें। धार्मिक पुस्तकों का वाचन-श्रवण करें। सही आहार.विहार व योगासन के नियमित प्रयोग के रोगमुक्ति संभव हैं। तनावमुक्त रहकर आशान्वित जीवन जिएं। याद रखें रोग दुःसह अवश्य है लेकिन भी असाध्य नहीं।