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ऋतु के अनुसार हमारा आहार-विहार कैसा हो ?

जीवन रक्षा के लिए आहार या भोजन
अनिवार्य है। शरीर रूपी गाड़ी को सुचारू रखने
के लिये भोजन रूपी तेल आवश्यक है। बिना
भोजन के हमारा शरीर न तो चल फिर सकता है
और ना ही अधिक दिनों तक जीवित रह सकता
है। परन्तु अगर हम भोजन जरूरत से अधिक मात्रा
में ग्रहण करने लगे या भोजन मे आवश्यक पौष्टिक
तत्व न हो या गलत प्रकृति का भोजन करें या
भोजन ढंग से न करें तो शरीर बीमार पड़ जाता है,
समय से पहले बूढ़ा हो जाता हैं और नाना प्रकार
की यातनाओं को सहते हुए अकाल मर जाता है।
अत: शरीर को स्वस्थ और जीवित रखने के लिए
आवश्यक है कि भोजन सही हो एवं सही ढंग से,
सही मात्रा में, सही समय पर किया जाना चाहिए।
भारतीय शास्त्रों में भोजन को तीन श्रेणियों में
बांटा गया है- सात्विक, राजसी और तामसी।
इसमें सात्विक आहार को श्रेष्ठ कहा गया है। यह
चिकित्साशास्त्र के अनुसार भी श्रेष्ठ है और धर्म
शास्त्र के अनुसार भी श्रेष्ठ है। श्री मद् भागवत गीता
में आहार को आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और
प्रीति को बढ़ाने वाला रसयुक्त, स्निग्ध, स्थिर एवं
हृदय (मन को स्वभाव से ही प्रिय लगने वाला)
कहा गया है।
आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार भी सात्विक
आहार आयु, बल एवं स्वास्थ्य प्रदान करने वाला
होता है। सात्विक आहार से तात्पर्य ऐसे आहार से
है जो रस तत्वों से युक्त हो, स्निग्ध यानी चिकना ।
ईयुक्त हो, सुपाच्य और पौष्टिक तथा रुचिकर हो, ।
आयु और बल की वृद्धि करे, शारीरिक एवं :
मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखे और मन को
भाये।

राजसी आहार कड़वे, नमकीन, बहुत गर्म,
तीखे, रूखे, दाहकारक तथा दुख, चिन्ता और रोगों
को उत्पन्न करने वाले होते हैं।
राजसी आहार खाने में स्वादिष्ट होते हैं।
अत: जिह्वा को प्रिय लगते हैं किन्तु शरीर के लिए।
हानिकारक होते हैं वात दोष तथा पित्त दोष उत्पन्न
करते हैं।
जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, जुठा और अपवित्र हो उसे तामस आहार
कहते हैं। ऐसे आहार शारीरिक एवं मानसिक
स्वास्थ्य के लिए अनुपयुक्त एवं हानिकारक होते
हैं। ऐसे भोजन को करने वाला व्यक्ति नाना प्रकार
के शारीरिक, मानसिक रोगों से ग्रस्त होता है एवं
अकाल (बिना समय के) मृत्यु को प्राप्त करता है
क्यों कि ऐसे आहार ग्रहण करने से हमारा शरीर
एवं मन शीघ्र ही बीमार पड़ जाता है और आयु
घट जाती है।
अत: आहार की प्रकृति, ऋतु तथा शारीरिक
बलाबल को देखते हुए हमें उचित आहार ग्रटण
करना चाहिए क्यों कि उचित आहार ग्रहण करने
से शरीर पुष्ट होता है, तुरन्त बल की प्राप्ति होती है,
शरीर की धारणा शक्ति में वृद्धि होती है और आयु,
तेज, उत्साह, स्मरण शक्ति, ओज तथा अग्नि की
वृद्धि होती है।
जहाँ तक आहार की प्रकृति का सवाल है,
सात्विक आहार उत्तम है। आधुनिक चिकित्सा
विज्ञान के अनुसार प्रोटीन, कार्बोहाईड्रेट, स्नेह,
वसा, खनिज द्रव्य, तथा विटामिन युक्त आहार पूर्ण
आहार है। चूंकि सात्विक आहार में सभी जरुरी
चीजें पर्याप्त मात्रा में रहती हैं। अतः सात्विक
आहार पूर्ण आहार है। दूध, दही, घृत, ताजे फल
(आम, अनार, सेव, अंगूर, केला, अमरुद,
आंवला, संतरा, पपीता, तरबूज आदि) सूखे फल
(खजूर, छुहारा, किसमिस, काजू, बादाम, चिरोंजी,
पिस्ता, मुनक्का आदि) शाक-सब्जी (आलू,
पालक, चौलाई, पटल, कद्दू, सहजन, रामतोरई,
गोभी आदि), अन्न (गेंहू, चावल, चना, दाल
आदि) सात्विक आहार है। अत: इन सब चीजों
को भोजन में आवश्यक मात्रा में ग्रहण करना
चाहिए। एक बात और ध्यान में रखें- शाकाहारी
आहार द्रव्य ही केवल सात्विक आहार में आते हैं,
मांसाहारी आहार सात्विक नहीं हैं।
हमारे भारत वर्ष में छ: प्रकार की ऋतुयें होती
हैं तथा प्रत्येक ऋतु का प्रभाव भी हमारे स्वास्थ्य
पर अलग-अलग होता हैं। यही कारण है कि
आयुर्वेद में प्रत्येक ऋतु अनुसार अलग-अलग
आहर-विहार बतलाया गया है ताकि ऋतु अनुकूल
आहार विहार के सेवन कर मनुष्य स्वस्थ एवं रोग
मुक्त रह सके एवं लम्बी आयु प्राप्त कर सके।
हेमन्त ऋतु (अगहन-पोष) में वायु की
शीतलता बढ़ी रहती है । इस ऋतु में जठराग्नि तीव्र
रहती है। फलत: भारी एवं गरिष्ठ आहार भी
आसानी से पच जाता है। अत: इस ऋतु
वातनाशक, मधुर, अम्ल एवं लवण रसों का सेवन
विशेष रूप से करना चाहिए।
शिशिर ऋतु (माघ-फागुन) में शीत और
रूक्षता विशेष होती है । इस ऋतु मे पाचकाग्नि तीव्र
रहती है। अतः हेमन्त ऋतु वाला आहार-विहार
उपयोगी है।
बसन्त ऋतु में कफ का प्रकोप होता है,
जठराग्नि कुछ मंद रहती है। अत:लघु एवं सुपाच्य
भोजन करना चाहिए। कफ प्रकोपक आहार-
विहार का त्याग करना चाहिए।
ग्रीष्म ऋतु (ज्येष्ठ से आषाढ़) में गर्मी से
आक्रान्त शरीर का स्नेह एवं तरल अंश खिचने
लगता है। कफ क्षीण होकर वात की वृद्धि होती
है। अत: इस ऋतु में लवण, कटु, अम्ल रस प्रधान
आहार, व्यायाम एवं सूर्य की किरणों का सेवन
निषिद्ध है क्योंकि लवण, कटु एवं अम्ल रस
आग्नेय होने के कारण पित्त वृद्धि करते हैं। अत:
इस ऋतु में मधुर, शीतल, हल्का एवं स्निग्ध आहार
उपयोगी होता है।
वर्षा ऋतु (सावन-भादो) मे पाचकाग्नि
और अधिक मंद हो जाती है वातादि दोष प्रबल
हो जाते हैं, शरीर दुर्बल हो जाता है और धूप, गर्मी,
पसीना, रूखापन और बारिश के कारण व्याकुलता
बढ़ जाती हैं। अत: इस ऋतु में अग्नि वर्द्धक वात
पित्त शामक, मधुर, तिक्त, कषाय रस बहुल,
हल्का एवं स्निग्ध आहार उपयोगी होता है।
शरद ऋतु (आश्विन-कार्तिक) में पित्त
प्रकुपित हो जाता है। अतः पित्त शामक मधुर
कषाय, तिक्त रसयुक्त आहार ग्रहण करना चाहिये।
भूख लगने पर लघु भोजन करना चाहिए। शालि
चावल, मूंग, चीनी, आंवला, परवल, शहद को
भोजन में ग्रहण करना चाहिए।
भोजन के नियम
1. भोजन नियत समय पर स्वच्छ स्थान एवं
स्वच्छ पात्र में करना चाहिए। भोजन स्वच्छता के
साथ तैयार किया जाना चाहिए एवं भोजन के पूर्व
हाथ, पैर, मुंह अच्छी तरह से धो लेना चाहिये।
गंदे हाथों से या अस्वच्छ स्थान में या अस्वच्छ पात्र
में या अस्वच्छता पूर्वक तैयार किया गया भोजन
स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। भोजन
अच्छी तरह पका हुआ तथा ताजा होना चाहिए।
बासी व अधपका भोजन खाने से पाचन शक्ति
खराब हो जाती है।
2. एक बार भोजन कर लेने के बाद पुन: तीन
घंटे तक भोजन नहीं करना चाहिए और छ: घंटे
से अधिक देर तक खाली पेट न रहें। अत: भोजन
का नियम बना लें, जैसे- सुबह का नाश्ता 7.30
बजे, दोपहर का भोजन 11.30-12 बजे, शाम का
नाश्ता 4 बजे, रात्रि का भोजन 7.30 बजे।
3. अतिशीघ्रता पूर्वक या बहुत धीरे-धीरे
भोजन नहीं करना चाहिये। भोजन खूब चबा कर
खाना चाहिए। ताकि लाला रस उसमें अच्छी तरह
मिल जाये और वह सुगमता से पच जाये। बहुत
जल्दी-जल्दी बिना चबा कर किया गया भोजन
देर से पचता है। क्योकिं दांतों का काम आंतों को
करना पड़ता है।
4. हमेशा भूख से थोड़ा कम खाना चाहिए।
यह नहीं कि खाना स्वादिष्ट और पौष्टिक है तो
ठूस-ठूस कर खाया जाये। ऐसा करने से भोजन
ठीक से नहीं पचता है एवं जठराग्नि मंद हो जाती
है।
5. भोजन के तुरन्त पहले या तुरन्त बाद में
पानी नहीं पीना चाहिए। अगर आवश्यक हो तो
भोजन के बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा पानी पीना
चाहिए। भोजन के पूर्व पिया हुआ जल दुबलापन
एवं मंदाग्नि उत्पन्न करता है। भोजन के बीच में जल
पीने से अग्नि तीव्र होती है। भोजन के अन्त में जल
पीने से कफ की वृद्धि एवं मोटापा बढ़ता है। अतः
भोजन के मध्य में जल पीना ठीक है।
6. भोजन ऋतु, प्रकृति, समय तथा रूचि के
अनुसार होना चाहिए।
7. भोजन शान्त होकर प्रसन्नतापूर्वक करना
चाहिए। भोजन के समय क्रोध करना, शोक
करना, चिन्ता करना, जोर से बोलना या हंसना
ठीक नहीं है। अपना ध्यान भोजन पर केन्द्रित
रखना चाहिए।
8. रात्रि का भोजन सोने से 2-3 घंटे पहले
ही कर लेना चाहिए। अगर रात में दूध पीते हों तो
सोने से आधा घंटा पहले ही पी लेना चाहिये।
9. भोजन के तुरन्त बाद निम्नलिखित कार्य
नही करना चाहिए- शयन, आसन, धूप में बैठना,
तैरना, स्नान, आग तापना, साइकिल, स्कूटर आदि
पर बैठना, मैथुन, दौड़ना, युद्ध, गीत, संगीत का
पाठ।
10. भोजन के बाद थोड़ा टहलना चाहिये
तथा बायीं करवट लेटना चाहिए।
11. रात का भोजन दिन की अपेक्षा हल्का
होना चाहिए। सुबह का नाश्ता दिन के भोजन का
चौथाई होना चाहिए। अगर चौथाई से काम न चले
तो आधा हो परन्तु भरपेट नहीं होना चाहिए।
12. रात्रि में दही नहीं खाना चाहिए तथा दही
को गर्म करके भी नहीं खाना चाहिए।
13. थके हुए व्यक्ति को तुरन्त भोजन नहीं
करना चाहिए। गलत तरीके से बैठकर में भोजन
नहीं करना चाहिए।
14. भोजन के अन्त में मट्ठा पीना चाहिए
तथा दिन की समाप्ति यानि रात्रि में सोते समय दूध
पीना चाहिए।
15. भोजन में पहले मीठी चीजें खानी
चाहिए, उसके बाद अम्ल और लवण रस युक्त
पदार्थो को खाना चाहिए और अन्त में तीनों रसों
वाले पदार्थ को खाना चाहिए।
16. भोजन से पहले नमक और अदरक
खाने से अग्नि प्रदीप्त होती है, भोजन में रुचि बढ़ती
है तथा जीभ एवं कण्ठ की शुद्धि होती हैं।
17. भोजन में परस्पर विरोध की चीजें जैसे
दूध और मछली, केला और दही, समभाग मधु
घृत नहीं ग्रहण करनी चाहिए।
18. भोजन ताजा एवं गर्म खाना चाहिए पर
इतना गर्म भी नही कि मुंह जलने लगे।
19. गरिष्ट, अधिक तैलीय एवं मसालेदार
पदार्थ बहुत कम खाना चाहिए।
20. दूध, घी, फल, हरी-शाक सब्जी पर्याप्त
मात्रा में खानी चाहिये।